राम्रा कुराको संग्रह

राम्रा कुराको संग्रह
विसेण्ट वानगाग पिकासोभन्दा पनि ठूलो चित्रकार थियो । अनुहार ठेउलाले गर्दा छ्याके । एउटी केटीले उसलाई मन त पराई तर विहे गर्न भएन । काकाकी छोरी परी । पछि ऊ पेरिस गयो र एउटी वेश्या कहाँ बस्यो । एक दिन वेश्याले भनी- तिम्रो अनुहार जति नराम्रो छ, कान भने त्यसको उल्टो कति राम्रो हो - मलाई तिम्रो कान निकै मन पर्छ । वानगाग आफ्नो कोठामा गयो । र चक्कुले कान काटेर रुमालमा पोका पारी ल्याएर वेश्यालाई राख्न दियो । उसको विचार थियो, राम्रा चिज हमेशा सुरक्षित राख्नुपर्छ ।
हाम्रा सरकारहरु राम्रा अनुहारका छैनन् । कोही हत्यारा कोही तस्कर । ढाँट्नु छल्नु , फट्याइँ गर्नु त तिनको धर्मै भयो । भ्रष्टाचार, कदाचार, घुसखोरी, बेइमानी, बेइज्जती तिनका स्वाभाविक गुण भए । त्यसैले सरकारहरु राम्रा हुदैँनन् । तर तिनका कुरा, तिनका आश्वासन, तिनका चर्तिकला, तिनका आकाश-पाताल जोड्ने गफ भने विसेण्ट वानगागका कानजस्तै सुन्दर छन् । त्यसैले अव हामीले सरकारहरुलाई भन्नुपर्‍यो-तिम्रा ती राम्रा कुरा काटेर हामीलाई देऊ । हामी जतनसँग राख्छौं । किनकि राम्रा कुरा हमेशा संग्रहणीय हुन्छन् ।

–पं. बाबुराम भट्टरार्इ

महात्मा गान्धीकहां

महात्मा गान्धीकहां एउटा गणितज्ञ गयो । गान्धीले भन्दा राम्रो चर्खा चलाउन थाल्यो । चर्खा राम्रो घुमाउने घिर्नी राम्रो र कपास राम्रो तैपनि वारम्वार धागो चुँडिइरहन्छ । कारण उसले बुझ्न सकेन । गान्धीसंग समस्या राख्यो । गान्धीले भने - धागो कात्ने बेलामा तिम्रो मन यताउता जान्छ होला र हात अनिश्चित हुँदा झड्का खाएर धागो चुडिन्छ होला । म त मन कहीं पनि लैजान्न । वस् धागो मात्र कात्छु । तिमी धागो कात्न बसेर मनमनै बजार जान्छौ होला । पत्नीसँग वात गर्र्छौं होला । जव धागो कात्न बस्छौ केवल धागो मात्र कात, धागो चुँडिन्न । गणितज्ञ शिष्यले त्यसै गर्‍यो, धागो चुंडिएन ।
हाम्रा प्रधानमन्त्रीहरु पनि लामो समय नटिक्ने र कतिखेर प्रधानमन्त्रीको पद चुँडिन्छ भनेर डर पैदा हुने कारण पनि यही हो । प्रधानमन्त्री भएपछि केवल प्रधानमन्त्री हुने र चानुमानु बस्ने गर्नुपर्छ । हाम्रा प्रधानमन्त्रीहरु प्रधानमन्त्री हुन पाँछैन, यो गर्छु त्यो गर्छु भन्न थाल्छन् । गरीवी निवारण, भ्रष्टाचार निवारण गर्छु भन्छन् । यति किलो मिटर बाटो बनाउँछु, यति मेगावाट बिजुली निकाल्छु, यति विद्यालय खोल्छु यति उद्योग स्थापना गर्छु त्या । अनि ध्यान अन्तै जान्छ । प्रधानमन्त्री पद स्वात्त चुँडिन्छ । अनि भएन सबैकुरा ठण्डा - त्यसैले वर्तमान र भावी प्रधानमन्त्री चूप लागेर प्रधानमन्त्री खाउन् । समस्यै हुँदैन ।

– पं. बाबुराम भट्टरार्इ

मैथिली नाट्‍य-साहित्य : एकटा संक्षिप्त परिचय

मैथिली नाट्‍य-साहित्य : एकटा संक्षिप्त परिचय

काव्यक अन्तर्गत सर्वाधिक रमणीय रचना नाटक मानल गेल अछि - ‘काव्यषु नाटकं रम्यम्‌ ।’ दृश्य एवं श्रव्य दुनू एकहि संग रहबाक कारणे काव्यक आन भेद सँ एकरा नीक मानल जाइछ । आचार्य भरत मुनिक ‘नाट्‍यवेदं तु पञ्चमम्‌’ सेहो बड़ प्रचलित अछि जकर तात्पर्य होइत अछि नाटक पांचम वेद थिक । संगहि भरत मुनि कहलनि जे ने तँ एहन कोनहुँ ज्ञान अछि ने शिल्प आ ने विद्या ओ कला एहन अछि आ ने तँ कोनहुँ योग वा कर्म एहन अछि जे नाटक मे नहि देखाओल जाय-

“न तज्जानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला ।
नासौ योगौ न तत्कर्म नाट्ययेऽस्मिन्यत्र दृश्यते ॥"

भारतीय नाट्य शास्त्रानुसार नाट्य-साहित्य मूल रूप सँ दू कोटि मे विभक्‍त अछि -रूपक ओ उपरूपक । रूपकक दस गोट भेद अछि, जाहि मे नाटक रूपकक सभ भेद मे मुख्य अछि । उपरूपकक अठारह भेद अछि । वस्तुतः नाटक काव्यरत्‍नक मणिमय मुकुट थिक । प्रत्येक भाषा-साहित्य मे नाटकक प्राचूर्यक इएह कारण थिक, जे ओ सभ कें समान रूपेँ आह्लादित करैत आयल अछि ।

मैथिली नाटकक उत्पत्ति चौदहम शताब्दी मे भेल । संस्कृत संवाद ओ मैथिली गीत मिश्रित नाटकक परम्परा प्रारम्भ भेलैक । एहि प्रकारक पहिल मैथिली नाटक ज्योतिरीश्‍वरक ‘धूर्त्तसमागम’ प्रहसन थिक, जे दू अंक मे विभाजित अछि । पछाति विद्यापति ‘गोरक्षविजय’ आ ‘मणिमंजरी’ नाटिका लिखलनि । एकर बाद उमापतिक पारिजात-हरणक नाम अबैत अछि, जे श्रीकृष्ण कोना मानिनी सत्यभामाक मानक रक्षार्थ इन्द्रक वाटिका सँ सम्पूर्ण पारिजात वृक्षक हरण कय अनैत छथि, ताहि सँ सम्बन्ध अछि । जहिना गीत-परम्परा मे अनेको शताब्दी धरि विद्यापति व्याप्त रहलाह, तहिना नाट्य परंपरा केँ उमापतिक ‘पारिजात-हरण’ प्रभावित कयने रहल । एकर अतिरिक्‍त उल्लेखनीय नाटक मे कवि गोविन्दक ‘नलचरित’, मुरारि मिश्रक ‘अनर्धराघव’, शंकर मिश्रक ‘गौरिदिगम्बर’, रामदासक ‘आनन्द-विजय’, लालकविक ‘गौरि स्वयंवर’, नन्दीपतिक ‘कृष्णकेलिमाला’, रमापतिक ‘रुक्मिणी-परिणय’, गोकुलानन्दक ‘मानचरित’, श्रीकृष्ण मिश्रक ‘प्रबोध चन्द्रोदय’, हर्षनाथ झाक ‘उषाहरण’ आदि उल्लेखनीय थिक । एहि मे भागवत, महाभारत, पुराण आदिक चर्चा विशेष रूपे भेल अछि तथा कृष्णलीला-सम्बन्धी कथा कथानकक रूप मे विशेष गृहीत भेल । यद्यपि ई परम्परा हर्षनाथ झाक संग समाप्त भ’ गेल तथापि चन्दा झाक ‘अहिल्याचरित’, विन्ध्यानाथ झाक ‘रमेश्‍वरचन्द्रिका’ तथा बलदेव मिश्रक ‘राज-राजेश्‍वरी’ ओ ‘रमेशोदय’ नाटक धरि एकर प्रभाव रहल । वास्तव मे उन्नैसम शताब्दीक अन्त धरि मैथिली नाटकक विकास सन्तोषप्रद नहिं रहल, मुदा एही त्रैभाषिक नाटकक गर्भसँ आधुनिक मैथिली नाटक निःसृत भेल अछि ।

आधुनिक मैथिली नाट्य साहित्यक जनक कविवर जीवन झा मानल जाइत छथि । विशुद्ध मैथिली भाषा मे सर्वप्रथम नाटक लिखबाक लेल इएह प्रेरित भेलाह आ शिल्प ओ शैलीक दृष्टिएँ नाटक मे परिवर्तनक आरोपन कयल । हिनक चारि गोट नाटक ‘सुन्दर संयोग’, ‘सामवती’, ‘पुनर्जन्म’, ‘नर्मदा सागर’ एवं खंडित अंश ‘मैथिली सट्टक’ उपलब्ध अछि, जकरा एकठाम एकत्रित कय ‘कविवर जीवन झा रचनावली’ नामेँ मैथिली अकादमी प्रकाशित कयलक । ‘सुन्दर संयोग’ चारि अंक मे विभाजित सामाजिक नाटक थिक, जाहि मे नव विवाहित दम्पति सुन्दर आ सरलाक प्रेम विरह ओ मिलनक कथा चित्रित अछि । ‘नर्मदा सागर’ मे परिणय सँ पूर्वक प्रेमकथा चित्रित अछि । ‘सामवती पुनर्जन्म’ सात अंक मे विभाजित पौराणिक कथानक पर आधारित एक उत्कृष्ट नाटक थिक ।

तत्पश्‍चात्‌ लालदास पौराणिक कथावस्तुक आधार पर ‘सावित्री सत्यवान’ नाटक दस अंक मे लिखलनि, जे सावित्री ओ सत्यवानक प्रणय-सम्बन्ध पर आधारित छैक । पतिक प्रति निष्ठा ओ आसक्‍ति केँ प्रदर्शित करैत एहि नाटकक अनेक गीत लालदासक अलंकार प्रियताक सफल उदाहरण थिक । मुन्शी रघुनन्दन दास छओ अंकमे ‘मिथिला नाटक’ लिखलनि, जाहिमे विशुद्ध राष्ट्रीयताक भावना सन्निहित अछि । हिनक ‘सुदर्शन’ ओ ‘दूतांगद व्यायोग’ नाटकक चर्चा सेहो कयल गेल अछि ।

सरसकवि ईशनाथ झा सामाजिक नाटक ‘चीनीक लड्डू’ तीन अंक मे लिखलनि, जे आधुनिक कुत्सित समाजक मर्म केँ उद्घाटित करैत अछि । हिनक ‘उगना’ नाटक तँ मिथिलांचलक कोनो एहन गाम नहि अछि, जतय मंचित नहि भेल होइ । एकर कथा विद्यापतिक शिव भक्‍ति आ ओहि सँ आह्लादित भय उगनाक रूप मे महादेवक विद्यापतिक चाकरी करब थिक ।

शारदानन्द झाक ‘फेरार’ नाटक राजनीतिक कथावस्तुक श्री गणेश करैछ । एहि मे १९४२ ई.क क्रान्ति आ तकर बादक ब्रिटिश सरकारक दमन चक देखौने छथि । पं. जीवनान्द झा दू अंकमे ‘दूर्गा विजय’ नाटक लिखलनि जे दुर्गा सप्तशतीक पाँचम अध्याय सँ एगारहम अध्याय धरिक कयास लय लिखल गेल ।

मंचनक दृष्टिएँ पं. गोविन्द झाक ‘बसात’, ‘तिक प्रणाम’ ओ ‘रुक्मिणीहरण’ बड़ ख्याति पओलक । मैथिल समाज मे नारी शिक्षाक अभाव, पति पत्‍नी मे जे असमानता देखल जाइत अछि तथा एहि असमानताक जे दुष्परिणाम होइत छैक-तकर सुन्दर चित्रण ‘बसात’ मे भेटैछ । नाट्य लेखन केँ सुधांशु शेखर चौधरी एक नव दिशा देलनि । ‘भफाइत चाहक जिनगी’, ‘लेटाइत आँचर’, ‘पहिल साँझ’, ‘मनुक्ख आ मनुक्ख’ एवं ‘एकतारा’ हिनक चर्चित नाटक थिक । दहेज प्रथाक दुष्परिणाम केँ चित्रित कय समाज केँ तकर विरोध करबा मे प्रयत्‍नशील होयब ‘लेटाइत आँचर’क उद्देश्य थिक । महेन्द्र मलगिया आ डॉ. अरविन्द कुमार ‘अक्कु’ आधुनिक नाटककार मे सर्वाधिक ध्यान आकर्षित कयलनि । महेन्द्र मलंगियाक ‘लक्ष्मण रेखा : खण्डित’, जुआएल कनकनी, ‘एक कमल नोरमे’ ‘ओकरा आंगनक बारहमासा’, ‘लेभराएल आ सीता’ एवं ‘बिरजू, बिलटू आ बाबू’ नाटकक सफल मंचन भेल अछि । ‘लक्ष्मण रेखा : खंडित’ आदर्शवादी नाटक थिक, जाहि मे विधवा-विवाह केँ आ तकर समस्या केँ नव दृष्टिएँ प्रस्तुत कयल गेल । अरविन्द कुमार ‘अक्कु’क ‘ताल-मुट्ठी’, ‘आगि धधकि रहल छै’, ‘पातक मनुक्ख’, ‘अन्हार जंगल’, ‘एना कतेक दिन’ ‘आतंक’ एवं ‘रक्‍त’ मंचनक दृष्टिएँ पूर्ण सफल रहल अछि ।

एकर अतिरिक्‍त आओर महत्वपूर्ण नाटक सभ अछि । विस्तारक भय रहबाक कारणे प्रमुख नाटक सभक मात्र नाम गनायब सम्भव अछि । पं. आनन्द झाक ‘सीता स्वयंवर’, पं. दामोदर झाक ‘गांधर्व विवाह’, डॉ. कांचीनाथ झा ‘किरण’क ‘विजेता विद्यापति’, मणीपद्मक ‘कण्ठहार’, ‘झुमकी’ ओ ‘तेसर कनिञा’, काशीनाथ मिश्रक ‘दिग्विजय’ आ ‘अयाची’, विद्यानाथ रायक ‘विद्यापति’, डॉ. रामदेव झाक ‘परिझैत पाथर’, गंगेश गुंजनक ‘आइ भोर’, उगयकान्त मिश्रक ‘मालिनी’, ‘नचिकेताक ‘एक छल राजा, ‘नाटकक लेल’ एवं ‘नायकक नाम जीवनम्‌’, भाग्यनारायणक झाक ‘मनोरथ’, छत्रानन्द सिंह झाक ‘प्रायश्‍चित्त’, बाबू साहेब चौधरीक ‘कुहेस’, विभूति आनन्दक ‘समय संकेत’, ‘गौरीकान्त चौधरी ‘कान्त’क ‘वरदान’, प्रबोधनारायण सिंहक ‘प्रेमक रोग’, गुणनाथ झाक ‘मधुयामिनी’, ‘पाथेय’, कनिञा-पुतरा’ ओ ‘लाल बुझक्कर’, उषा किरण खानक ‘एकसरि ठाढ़ि’ ओ ‘फागुन’ , घननाथ झाक ‘भगवती भक्‍त’, रवीन्द्रनाथ ठाकुरक ‘टू लेक’, ‘एक राति’ आ ‘जखने कहल कक्का हौ’, डॉ. सदन मिश्र ‘राजनर्तकी’, लल्लन प्रसाद ठाकुरक ‘बड़का साहेब’, ‘बकलेल’, मि. लीलो काका’ ओ ‘लौंगिया मरचाइ’ आदि नाटक मैथिली नाट्य साहित्यक अन्तर्गत मुख्यतः विविध भावधाराक प्रतिनिधित्व करैछ ।

नाटकक एकटा प्रवृत्ति आन भाषा-साहित्यक नीक नाटक सभक मैथिली अनुवाद करब सेहो थिक । एहि मे संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला ओ फ्रेंच साहित्यक उत्कृष्ट नाटक सँ मैथिली नाट्य साहित्यक श्रृंगार करबाक प्रयास भेल । रघुनन्दन दासक ‘उत्तर रामचरित’, प्रो. ईशनाथ झाक ‘मृच्छकटिक’ ओ ‘शकुन्तला’, डा. सुधाकर झा शास्त्रीक मुद्रा राक्षस पं गोविन्द झाक ‘स्वप्न-वासवदत्ता’ ओ ‘मालविकाग्निमित्र’, दामोदर झाक ‘भूतक छाया’, जीवनान्द ठाकुरक ‘अभिषेक’, प्रो. प्रबोध नारायण सिंहक ‘अन्हेर नगरी’ ओ ‘चोर’, डॉ. अणिमा सिंहक ‘पियासल धरती उताहुल नोर’, छत्रानन्द सिंह झाक ‘अन्तिम प्रश्न’ आ ‘गाछ’, परमानन्द झाक ‘पार्वती परिणय’, डॉ. इलारानी सिंहक ‘प्रेम:एक कविता’ ओ ‘सलोमा’, दीनानाथ झाक ‘आगन्तुक’, रामलोचन ठाकुरक ‘चारि पहर’ आ ‘जादूगर’, कुणालक ‘बाँकी इतिहास’ आदि अनूदित नाटक पढ़ि साहित्यिक आनन्द विशेष लेल जा सकैछ ।

मैथिली-साहित्यक अन्य विधा (कथा, उपन्यास, आदि) क कृत्तिकेँ नाट्य-रूपान्तरित करब एम्हर आबि प्रारम्भ भेल अछि, जे मंचनक दृष्टिएँ बड़ सफलता प्राप्त कयलक । ‘यात्री’क ‘नवतुरिया’ उपन्यास, श्रीमती उषा किरण खान द्वारा ‘ललित’क ‘पृथ्वी-पुत्र’ उपन्यास, अशोक द्वारा ‘धूमकेतु’क कथा ‘अगुरवान’, मनोज मनुज द्वारा ‘राजकमलक’क ‘भग्न स्तूपक एकटा अक्षत’ कुणाल द्वारा एवं विभूति आनन्दक ‘रिटायरमेंट’ कथा ‘एसगर-एसगर’ नामेँ ज्योत्सना चन्द्रम्‌ द्वारा महत्वपूर्ण कार्य थिक ।

आकाशवाणीक आविष्कार नाटक केँ दृश्य काव्यक संग श्रव्य काव्य बनाय देलक अछि । २३ जनवरी १९४५ केँ पटना मे एवं २ फरवरी ‘७९ केँ दरभंगा मे आकाशवाणीक स्थापना सँ चौपाल भारती, गामधर ओ सिङरहार कार्यक्रम मे मैथिलीक रेडियो नाटकक प्रवेश शुरू भेल । यद्यपि एहि दिशा मे सन्तोषप्रद कार्य नहि भ’ रहल अछि आ अधिकांश रेडियो नाटक अप्रकाशित पड़ल अछि । कुमार गंगानन्द सिंह लिखित ‘जीवन-संघर्ष’ पहिल रेडियो नाटक थिक, जे पटना केन्द्र सँ प्रसारित भेल छल । ‘मंगरूपाठक’, ‘जय सोमनाथ’, ‘सीता’, ‘चाकरी’, ‘हमर स्वप्न सार्थक भेल’, ‘प्रायश्‍चित्त, ‘पियास’, ‘कोजगराक भरिया’, बाढ़ि बाटे’, ‘नानक पूरा’, ‘आदर्श वर’, ‘गुरु गूड़-चेला चीनी’, प्रेमक सिन्दूर’, विश्‍वामित्र’, ‘लोचन धाए फेधाएल हरि नहि आयल हे’, ‘साध्वी सीता’, ‘इनोरेमे भांग’, ‘बातक बतंगर’, ‘आलूक बोरिया’, ‘मामा सावधान’, ‘नसबन्दी’, ‘शंकर-पराभव’, ‘युवा संकल्प’, ‘सिकीक डाली: मलकोकाक फूल’ आदि रेडियो नाटक बहुचर्चित रहल ।

मैथिली नाट्य-साहित्यक विकास मिथिलाक अतिरिक्‍त नेपाल आ आसाम मे भेल । कहल जाइछ जे मैथिली नाटकक जन्म मिथिला मे भेल आ विकास नेपाल मे । नेपाल मे मैथिली नाटकक जे श्रृंखला स्थापित भेल, तकर श्रेय मल्ल वंश केँ देल जायत । मल्ल राजा लोकनि द्वारा मैथिली नाट्य साहित्यक हेतु जे सत्प्रयास कयल गेल, तकर साम्राज्य भातगाँव, काठमांडू, ललितपुर एवं बनेपा मे भेल । चारू केन्द्र मिलाय लगभग एक सय मैथिलीक नाटक लिखल गेल । परन्तु मल्ल राजवंशक पतनक बाद मैथिली नाट्य-साहित्यक समक्ष जे एक अल्प विरामक स्थिति आबि गेलैक, तकरा एमहर आबि दूर कयलनि, पं. जीवनाथ झा, डॉ. ‘धीरेन्द्र’, महेन्द्र मलंगिया, स्व. वासुदेव ठाकुर, गुणनाथ, रामभद्र, शशिकान्त ठाकुर, रामभरोस कापड़ि ‘भ्रमर’, कृष्णकान्त ठाकुर प्रभृति ।

आसाम मे वैष्णव धर्मक प्रचार-प्रसार लेल मैथिली नात्य-साहित्यक विकास सोलहम शताब्दी मे भेल, जकरा ‘अंकीया नाट’ कहल गेल आ एकर प्रवर्त्तक शंकरदेव छलाह । अंकीया नाटककार मे माधवदेव, गोपालदेव आ रामलोचन ठाकुरक नाम अग्रगण्य अछि ।

मैथिली नाट्य-साहित्य केँ दुतगतिएँ आगाँ बढ़यबाक श्रेय मैथिली नाट्य-रंग केँ सेहो छैक । मैथिली रंगमंच केँ ठाढ़ करबा मे पटनाक चेतना समितिक मुख्य भूमिका रहल, जे सभ साल विद्यापति स्मृति पर्वक अवसर पर किछु नाटकक मंचन करैत आयल अछि । संगहि बहुतो एहन नाट्य संस्था अछि, जे अनेकानेक मौलिक, अनूदित ओ रूपान्तरित मैथिली नाटकक मंचन कयलक । एहि मे प्रमुख अछि-‘भंगिमा’ (पटना), ‘अरिपन’ (पटना), ‘चित्रगुप्त सांस्कृतिक केन्द्र’ (कलकत्ता), ‘अखिल भारतीय मिथिला संघ’ (कलकत्ता), ‘मिथिपात्रिक (कलकत्ता), ‘श्यामा नाट्य कला-परिषद’ (चनौर), ‘मिथिला नाट्य कला-परिषद्‌’ (सरिसव-पाही), ‘मिथिलाक्षर’ (जमशेदपुर), ‘मैथिली कला-मंच’ (बोकारो), ‘भद्रकाली नाट्य-परिषद्‌’ (कोइलख), ‘नाट्य-परिषद्‌’ (पिण्डारूछ) आदि ।

वास्तव मे मैथिली नाट्य-साहित्य अपन विकासक पथ पर अग्रसर भ’ रहल अछि । ऐतिहासिक, पौराणिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि भावभूमि पर आधारित नाटक द्वारा मैथिली-साहित्य गौरवान्वित भेल अछि । नाटककार मंच-कौशल केँ ध्यान मे राखि एकर अभिवृद्धि मे लागल रहैत छथि ।

मिथिलाक्षरक ऐतिहासिकता

मिथिलाक्षरक ऐतिहासिकता

ऐतिहासिक दृष्टिएँ मिथिलाक्षर लिपिक प्राचीनतम आओर प्रारम्भिक रूप चित्रात्मक छल । मैथिलीलिपि अर्थात्‌ मिथि माथव सँ उत्पन्न विदेह जनकक राज्य मिथिला मे जाहि अक्षर सँ लिपिक रूप भाषाक रचना भेल, मिथिलाक्षर कहल जाइछ । मैथिली लिपिक प्राचीनतम उल्लेख, “ललित विस्तर" नामक बौद्ध ग्रंथ मे पाओल जाइछ, जतए ई “वैदेही-लिपि" कहल गेल अछि । ई पूर्वीय लिपि किंवा विदेह लिपि बंगला-आसामी ओ मैथिली-उड़िया वर्णमालाक जननी मानल जाइत अछि । मैथिलीक सभटा वर्ण-स्वरूप बंगालक प्राचीन पाण्डुलिपि मे भेटि जाइत अछि, तँ बंगाली पंडित सुविधा सँ मिथिलाक्षर पढ़ि लैत छथि । मगध तँ सहजहिं तत्कालीन वृहद विदेह मे अंगीभूत छल तें विक्रमशिला ओ नालन्दा मे लिखल मुसलमान आगमन सँ पूर्व एहन पाण्डुलिपि नेपाल मे सुरक्षित वर्णमालाक आलेख भेटैछ । परवर्त्तीकाल सातम शताब्दीक देवनागरी शैलीक वर्णमाला “कैथी"क प्रचार मगध, भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र होइत सरलता एवं संक्षिप्तताक कारणेँ मिथिला मे एकर पूर्ण प्रचार भेल । परञ्च मिथिलाक उच्च जातिक वर्ग मे प्राचीन लिपिक प्रयोग होइतहिं रहल । बाद मे मुद्रण कला विकसित भेलाक कारणें तिरहुता मे टाइपक निर्माण नहिं भऽ सकल, तखन हिन्दी साहित्यक प्रसारक संग ओकर लिपिक उपयोग मैथिलीक पोथी छपबा मे होमय लागल । ई स्थिति अद्यपर्यन्त अछि ।

मिथिलाक्षरक सभ सँ प्राचीन रूप “बौद्धगान" ओ “दोहा"क प्राचीन पाण्डुलिपि मे भेटैछ । एहि मध्य आलेखक तिथि नहिं भेटैछ । एहिना नेपालक पुस्तकालय सभ मे कतिपय अतिप्राचीन पाण्डुलिपि भेटैछ । राहुल सांकृत्यायन तिब्बत मे सुरक्षित कतोक पाण्डुलिपिक उल्लेख कएने छथि । “बिहार रिसर्च सोसाइटी" पटना मे सेहो मिथिलाक्षर मे लिखित संस्कृत ग्रन्थक पाण्डुलिपि सुरक्षित अछि ।

मिथिला मे लिपिक प्राचीनताक एकटा प्रमाण विदेह राज्यक स्थापना पहिने मिथिला मे व्रात्यनामक आदिवासीक प्रसंग संहित ओ ब्राह्मण-ग्रंथ सभ मे नीचवाचक शब्दक प्रयोग भेटैछ । व्रात्यलोकनिक सम्पूर्ण उत्तरी भारत मे प्रभावपूर्ण संस्कृति, साहित्य, भाषा, लिपि लौकिक छल, तेँ व्रात्य लोकनि ब्राह्मण ग्रंथ मे अनादरक पात्र छथि । महाभारत मे लिच्छवी केँ व्रात्य, क्षत्रिय तथा भगवान बुद्ध वज्जीक संज्ञा देने छथि, जकर अर्थ होइछ घुमक्‍कर । व्रात्यभाषा केँ बाटुला वर्त्तनी कहल जाइछ । मिथिला मे वर्णमाला केँ अद्यपर्यन्त वर्त्तनी कहल जाइछ, जे मिथिलाक्षर व्रात्य लोकनिक लिपिक संग घनिष्ठ सम्बन्धक सूचना दैछ । जाहि सँ मिथिलाक्षरक मूल अंश “ललित-विस्तर"क विदेह लिपि सँ बहुतो प्राचीन सिद्ध भए जाइछ ।

मिथिलाक्षरक उत्पत्ति कहिया ओ कोन रूपेँ भेल, निश्‍चित रूपेँ नहि कहल जा सकैछ, परंच प्रमाणस्वरूप “शतपथ ब्राह्मण"क अनुसार आर्यक एक दल माधव विदेह एवं हुनक पुरोहित रहुगणक नेतृत्व मे सरस्वती नदीक तट सँ सटले विदेह राजवंशक स्थापना कएल । संभव थीक जे ओ दल अपना संगे सिन्धु घाटीक सभ्यता, संस्कृत भाषा ओ लिपि सेहो अनने हो । “वृहदारण्य उपनिषद"क तेसर ओ चारिम अध्याय मे वर्णित याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद गर्भित तर्क प्रणाली सँ स्वभावतः अनुमान कएल जाइछ से शतपथ कालीन विदेह सर्वांग सम्पूर्ण विकसित राष्ट्र छल जकर स्वतंत्र वैदेही भाषा ओ स्वतंत्र वैदेही लिपि सेहो रहल होयतैक । एहि तथ्यक सम्पुष्टि बौद्ध धर्मक प्रसिद्ध ग्रंथ “ललित विस्तर" जकर चीनी अनुवाद ३०८ ई. मे भेल सँ प्रमाणित होइछ । एहि ग्रंथक ६६ गोट लिपिक सूची मे पूर्व-विदेह लिपिक चर्चा भेटैछ । विदेह लिपि सर्वांगीण पूर्वीय क्षेत्रक लिपिक विकास मैथिली, बंगला, आसामी ओ उड़िया लिपि सँ भेल । प्राचीन भारत मे दू गोट ब्राह्मी ओ खरोष्ठी लिपि प्रचलित छल । लिपिक प्राचीनतम प्रमाणेँ भारत मे पाँचम शताब्दी ई० पूर्वक पाणिनिक काल मे ब्राह्मीलिपि सँ मैथिलीक उद्‍भव ओ विकास भेल अछि । पूर्वी लिपि रूप सँ मैथिलीक, कैथी ओ बंगला विकसित भेल ।

मैथिलीक विकास रेखाचित्र निम्नवत्‌ देखू :-
ब्राह्मीलिपि
उत्तरी शैली दक्षिणी शैली
गुप्तलिपि
कुटिललिपि
शारदालिपि नागरीलिपि
पूर्वीलिपि शैली पश्‍चिमी शैली
मैथिली, कैथी,
बंगला आदि । देवनागरी
डॉ० सुभद्र झा प्राच्य प्राकृत सँ निकलल भाषा सभ केँ निम्नरूपेँ दर्शौने छथि :-
प्राच्य प्राकृत
पश्‍चिमी पूर्वी
कौशल काशी मगध विदेह गौड़ ओड़ कामरूप
अवधी भोजपुरी मगही मैथिली बंगला ओड़िया आसामी

मैथिलीक विकास क्रमेँ प्राचीन मैथिली (दसम शताब्दी सँ अठारहम शताब्दी धरि) ओ नवीन मैथिली (अठारहम शताब्दी सँ अद्यपर्यन्त) दू गोट रूप मे मानल जाइछ ।

भारत भ्रमण कयनिहार तिब्बती यात्री धर्मस्वामी १२३४ ई० मे एहिठामक लिपिक चर्चा करैत ओकर नाम “बैवर्त्त-लिपि" कहलनि । ओ एहि सँ पूर्व विक्रमांकदेव चरित नामक ग्रंथ मे कुटिलाक्षर ओ कुटिल लिपिक चर्चा कएलनि अछि । सम्प्रति एकर नाम तिरहुता अछि । मुदा पढ़ल-लिखल लोक मे “मिथिलाक्षर" वा “मैथिली लिपि" रूप मे उद्‍धृत होइछ ।

म० म० हर प्रसाद शास्त्री “हाजार बछरेर पुरातन बौद्धगान ओ दोहा"क तालपत्रक आधार पर प्राचीनतम अभिलेख केँ “तिरहुता" कहि प्रकाशित कएलनि अछि । राहुल सांकृत्यायन “कुरुकुल्लासावन" नामक एक ग्रंथ तिब्बत मे प्राप्त कऽ ओहि लिपि के प्राचीनतम तिरहुता बतौलनि अछि । राजा नान्यदेवक मंत्री श्रीधर कायस्थक अंधराठाढ़ी (१०९७) ई० मे प्रायः सर्वप्रथम शुद्ध मिथिलाक्षरक दर्शन होइत अछि । तदन्तर नान्यदेवक बालक मलदेवक राजधानी भीठ भगवानपुरक लक्ष्मीनारायणक मूर्त्तिक नीचा शिलालेख मिथिलाक्षर मे अछि । एकर अतिरिक्‍त पनिचोभ ताम्रपत्र, आशी-शिलालेख, तिलकेश्‍वर गढ़ अभिलेख, खोजपुर अभिलेख, भागीरथपुरक शिलालेख, पोखराम गामक रामजानकी मन्दिर मे अवस्थित लक्ष्मीनारायणक मूर्त्तिक नीचाँ शिलालेख आदि मिथिलाक्षर मे देखल पाओल जाइत अछि ।

विद्यापतिक हाथ सँ (१४१८ ई०) लिखल भागवतक प्रतिलिपि मिथिलाक्षर मे कामेश्‍वर सिंह संस्कृत विश्‍वविद्यालय, दरभंगा मे सुरक्षित अछि । मैथिली लिपिक वर्ण-विन्यासक नियम “कामधेनु तंत्र" ओ “वर्णोद्धारतंत्र" मे प्रकाशित अछि । एकर प्रचार बंगाल ओ आसाम धरि अछि ।

प्राचीन ताम्रलिपि वा शिलालेख मिथिलाक्षर मे प्राप्त अछि । सम्प्रति मिथिलाक्षरक स्थान पर देवनागरी लिपिक प्रयोग होइत आबि रहल अछि ।

मैथिलीक लोकगीत साहित्य

मैथिलीक लोकगीत साहित्य


(मैथिलीक लोक साहित्य समस्त भारतीय भाषा मे सर्वाधिक समृद्ध अछि । खास कऽ केँ लोक गीत मिथिलाक कण-कण मे रसल-बसल अछि । जीवनक समस्त संस्कार सँ लऽ कऽ खेती-पथारी, जाँत चलेयवाकाल आ खेत मे काज करऽ समय धरिक जीवनक हर्ष-विषाद, आरोह-अवरोह आदि लोकगीत मे लयबद्ध अछि । समय-समय पर अपन चारित्रिक विशिष्टता आ कर्तव्यनिष्ठता द्वारा अनेकानेक इतिहास पुरुष हमरा लोकनिक लेल प्रेरणास्रोत बनलाह । )

लोकविद्या समस्त विद्याक जननी ओ लोकजीवनक सांस्कृतिक आत्मा थिक, जे मानव जीवनक विकासयात्रा मे वेदविद्याके सारस्वते रूपे उद्‍गमित करबा मे समर्थ भेल । आइ ओ वेदविद्याक समानान्तर प्रवाहित होइत अवशिष्ट अछि । लोकक सम्बन्ध मूलतः निषाद, द्रविड़ ओ किरात मूलक ओ वेदक सम्बन्ध आर्यमूलक जाति-उपजाति सभ सँ रहल अछि । अहि तरहें वैदिक साहित्य मे आर्य एवं आर्येतर संस्कृति सभक समाहार देखना जाइछ । वस्तुतः लोकसाहित्य ओ वैदिक साहित्यक अन्तर सम्बन्ध ओ समानान्तरताक अनुशीलन आवश्यक अछि । मिथिलांचल लोकविद्या ओ वेदविद्या दुनूक जाग्रत भूमि थिक ।

लोकसंस्कृतिक सन्दर्भ मे लोकविद्याक विस्तार लोकधर्म, लोककला ओ लोकसाहित्य मे देखना जाइछ । भारतीय लोकधार्मिक उत्स मूलतः आर्येतर संस्कृति मे अन्तर्निहित अछि । अहि पृष्ठभूमि मे देवीक उपासना आयोजित अर्थात निषाद लोकनिक अवदान थिक मुदा देवोपासना आर्य लोकनिक । एकरा मे मातृमूलक सत्ता अर्थात पितृब्रम्हक । ब्रह्म एकटा अनादि शक्‍तिक केन्द्र बिन्दु थिक, जनिक पूजोपासना केओ माताक करुणा प्राप्त करबाक लेल करैत अछि तँ केओ पिताक स्नेहक लेल । अतः ब्रह्मक कोनो लिंग नहि होइछ । ब्रह्म मूलतः एकटा देव शक्‍ति थिक, तकर विस्तार सृजन, पोषण एवं संहार मे देखना जाइछ । हमरा लोकनिक जीवन चक्र लोकधर्मक धूरी पर आनुष्ठानिक आचार, कलात्मक विन्यास ओ सांस्कृतिक साहित्यिक गरिमा सँ मण्डित अछि । समस्त आनुष्ठानिक आचार, पूजा पाठ, गहवर, स्तुतिगान (भगैत), गाथाचक्र, वाद्य वादन, नृत्य संगीत आदि सँ मण्डित अछि । जकर शाब्दिक अभिव्यंजना लोकसाहित्यक विभिन्‍न विधा सभ मे भेल अछि ।

मिथिलाक ग्राम्य जीवनक मुक्‍त आकाश ओ धरतीक बीच गहन जीवनानुभूति सँ परिपूर्ण गीत, ऐतिहासिक ओ सांस्कृतिक गाथा, जीवन संदेशमे सरल कथा, अनुभवसिद्ध लोकोक्‍ति, बुद्धिमापक बुझौअलि, रहस्यमय मंत्र आदि सँ जे लोकसरस्वती अबतारित होइत अछि, तकरे प्रभावलीक नाम थिक लोकसंस्कृति । मैथिली लोकसाहित्य मिथिलांचलक लोकसंस्कृतिक सारस्वत स्वरूप थिक । अहि लोक, लोकसंस्कृति ओ लोकसाहित्यक तात्विक अभिज्ञान लोक केँ भले नहि हो‍उक, मुदा ओकर उपेक्षा नृत्यवेत्ता, समाजशास्त्री, राजकीय प्रशासन संस्कृतिकर्मी ओ लोकसाहित्यविद नहि कऽ सकैछ, कियेक तँ लोके सँ राष्ट्रीय संस्कृति केँ चेतना प्राप्त होइत अछि । यैह कारण अछि, जे लोक केँ राष्ट्रक अमूल्य निधि मानल जाइछ, अमर स्वरूप मानल जाइछ जकर अनुभूति जे चेतनाक अभिव्यक्‍ति लोकसाहित्य मे भेल अछि । अतः मिथिलांचलक मैथिली लोकसाहित्य राष्ट्रक अमूल्य निधि थिक ।

जँ हिमालयक समस्त सौन्दर्य, कमला-कोसी-बलान, गंगा ओ गण्डकीक हिलोर, हरियर वन-प्रांतर एवं खेत-खरिहानक सुषमा ओ समृद्धि धीरोदात्त ओ धीरललित नायक-नायिका सभक शौर्य-पराक्रम एवं श्रृंगार ओ करुणाक अभिव्यक्‍ति, युग-युगान्तरसँ परम्परित अनुभूतिपूर्ण ओ प्रमाणसिद्ध उक्‍तिसभ, ज्ञानमापक पहेलिकासभक अलावा मुक्‍ताकाश मे तरुण मेघक मलार उत्तरांचलक हिम हवा ओ दक्षिणांचलक धान गेहूँ-गुलाब आदिक सुगंधिकेँ समेटि क लोककंठकेँ समर्पित कऽ देल जाय तँ ओहि कंठ सँ जे स्वर समवेत स्पंदित होयत, ओ होयत मैथिली लोकसाहित्य । अतः हमरा लोकनिक मैथिली लोकसाहित्य ओतबे नैसर्गिक अछि जतेक कोनो वनफूल, ओतवे उन्मुक्‍त अछि जतेक आकाशक चिड़ै, ओतवे सरल-तरल, पवित्र ओ प्रवाहमान अछि जतेक गंगा ओ कमलाक धार ।

भारतक सांस्कृतिक इतिहास मे मिथिला ओ मैथिलीक योगदान महत्वपूर्ण अछि । भारतक जनपदीय लोकसाहित्यक अध्ययन ओ अन्वेषणक परम्परामे मैथिली लोकसाहित्यक सारस्वत भूमिका के जार्ज ग्रियर्सन, राम इकबाल सिंह राकेश, ब्रजकिशोर बर्मा ‘मणिपद्‍म’, डा० जयकान्त मिश्र, पं० राजेश्‍बर झा, डा० पूर्णानन्द दास, डा० अणिमा सिंह, डा० प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मौन’, डा० व्यथित आदि विद्वान लोकनि रेखांकित कयने छथि । तथापि मैथिली लोकसाहित्य महोदधिक मंथनक हेतु एकटा साधन सम्पन्‍न लोकसंस्कृति संस्थानक निर्माण अनिवार्य बुझना जाइछ, कियेक तँ दिन प्रतिदिन सुखाइत अहि लोकसाहित्य सागर केँ वैज्ञानिक ढंग सँ सर्वेक्षण, संकलन ओ अनुशीलनक अपेक्षा अछि । मैथिली गाथागीतक दृष्टिसँ मिथिला ओ मधेसक सीमावर्ती भूभाग बेस उर्वर अछि कियेक तँ सीमावर्ती क्षेत्र धरना बहुल होइत अछि, जकर अनुगायन मैथिली गाथा गीत साहित्य मे भेल अछि । आलोच्य सीमांत भूभाग सलहेस कुसमा, रेसमा-चूहर एवं काजरि-माजरिक रंगभूमि; लोरिक घुघली, धरमा, अमर सिंह, जयसिंह आदिक रणभूमि; दुलरा दयाल, नैका बनियारा, शंभु बनिया आदिक व्यापारिक अभियान क्षेत्र; बावन -बखतौर, कारू भुइयां आदिक गोजर भूमि अछि । ‘लबहरि-कुसहरि’ मिथिला ओ मैथिलीक अभिनव गाथा थिक , जाहिमे उत्तररामचरितक कथा भूमि, वर्णित अछि । गाथा मे सीता वनवास, लव कुशक जन्म, वाल्मीकि आश्रम मे शिक्षा-दीक्षा, ओ रामक सेनाक संग लवकुशक युद्धक गाथा गायन भेल अछि । अहिमे आभिजात्य संस्कृति रुपांकित अछि । मुदा आभिजात्ये संस्कृतिक सलहेस मिथिला-मधेसक सीमांत क्षेत्रक मैथिलीक अपन गाथा थिक । मैथिली लोकसाहित्यक इतिहासक दृष्टिसँ सलहेस ओ गाथा थिक, जाहिमे वन्य संस्कृतिक अवसान ओ मैदानी संस्कृतिक आरंभ देखना जाइछ । अहिमे मिथिला, मगध, नेपाल ओ तिब्बतक सम्बन्ध सूत्र, किरात, मल्ल ओ राजन्य संस्कृति, शैवशाक्‍त ओ बौद्ध धर्म, मालिनी कष्ट, त्रिपुर साधना एवं चक्रपूजनक सांस्कृतिक परिवेश उद्‍घाटित भेल अछि । मैथिली लोकगाथाक चर्चित नायक सलहेस आइ हिमालयक पार प्रदेशसँ गंगा तीर धरिक जनपद मे लोक देवताक रूप मे पूजित छथि ।

मैथिलीक गाथा लोरिकाइन गाथानायक लोरिक यद्यपि लोक देवताक रूपमे पूजित नहि छथि तथापि लेरिकाइनक गाथा ओ लोकनाट्‍यक परम्पराक उल्लेख लोरिक, ज्योतिश्‍वरक ‘वर्णत्‍नाकर’ (चौदहम सदी) मे प्राप्त होइछ । आलोच्य गाथाक नायक लोरिक त्रिकोणात्मक प्रेमक कथाभूमि मे पत्‍नी मांजरी ओ प्रेयसी चनैनक बीच अवस्थित छथि । बनठा चमार लोरिकाइनक खलनायक थिक । सुपौल जिलाक हरदीगड़ मे लोरिकक आराध्य भगवती दुर्गा प्रतिष्ठित छथि जनिक प्रांगण मे युद्धरत लोरिक ओ बनठा चमारक मध्य पृष्ठभूमि मे चनैनक भव्य मूर्ति बनयवाक ओ लोरिक नाचक परम्परा अवशिष्ट अछि । अहि प्रेमगाथा सँ उत्प्रेरित भ’ मुल्ला दाउद ‘चन्दायन’क रचना कयने छलाह । ‘चन्दायन’ सूफी साहित्यक चर्चित काव्य थिक ।

मिथिला बनाम तीरभूक्‍ति हिमालय सँ निःसृत कोसी, कमला, बलान, जीवछ, तिलजुगा, गंगा आदि नदी सभक क्रीड़ा भूमि मानल जाइछ । कमला कें मिथिलांचलक गंगाक आस्पद प्राप्त छनि । ओ नदी देवीक रूपमे पूजित छथि । मैथिलीक अनेक गाथा सभ मे सूर्यक ज्योतिकें म्लान करयवाली दिव्यांगना कमलाक भूमिका सतत प्रवाहित अछि । ‘दुलरा दयाल’क गाथा नदी संस्कृतिक गाथा थिक । ‘दुलरादयाल’ मे कमलांचलक जनपदीय संस्कृति, हिमालय सँ गंगा पार धरिक व्यापारिक अभियान, कोयलावीर, तांत्रिक नृत्य, डाइन कल्ट आदिक नीक अभिव्यक्‍ति भेल अछि । गाथानायक दयाल सिंहक चरित प्रेमक उदारता, साहसिक अभियान, वणिक कौशल, निरभि मानिता आदिक गुण सँ गरिमा मण्डित अछि ।

नैका बनिजारा’ मैथिलीक गाथा मणि थिक । एहि मे राजा-बेपारी, डोम-चण्डाल, घांगड़-बांगड़ बेकाली डकैत आदिक चारित्रिक विशिष्टता सभक संगे पूर्वांचलक व्यापारिक मार्गक स्पष्ट निर्देश भेटैत अछि । ओहि समय नदी मार्ग द्वारा हिमालयक पाद प्रवेश सँ ताम्रलिपि धरि प्रचलित छल । अहिमे नदी मार्गीय व्यापारक राजकीय संरक्षण, जलद सँ संयुक्‍त आतंक, दास-दासीक कीन-बेच, बारह वर्षक दीर्घ अभियान, पारिवारिक ओझराहटि, मणि-माणिक्य ओ स्वर्ण-रत्‍न राशिक माध्यमे व्यापार, वणिक केन्द्र, पड़ाव, हाट-बाट-घाट आदिक संधान पाओल जाइछ । मिथिलांचलक प्रख्यात व्यापारिक संदर्भ मे नैका बनिजाराक अलावा शोभा ओ शंभु बनिजाराक मैथिली गाथा सेहो लोकप्रचलित अछि ।

मैथिली लोकसाहित्यक सर्वाधिक अहि पंचगाथा रत्‍नक अतिरिक्‍त दीना-भद्रीक गाथा मे शोषण-उत्पीड़नक विरुद्ध प्रतिकारक स्वर पहिल बेर मुखर देखना जाइछ । यैह प्रतिकार वसावनक गाथा मे सेहो उपलब्ध अछि । अहि तरहें लोकप्रचलित बखतौर, कारू, विजयमल, कारिख पंजियार, मलही सुलतान, फेकू-दयाराम, गनीनाथ-गोविन्द, रणपाल-धनपाल आदिक गाथा सभ मध्यकालीन मिथिलांचलक ऐतिहासिक अभिलेख बनल अछि ।

लोकगीत लोकसाहित्यक सर्वाधिक चर्चित विधा अछि, जकर विस्तार जन्म सँ ल’ क मृत्युधरि, पावनि-तिहार सँ ल’क धार्मिक अनुष्ठान धरि, घर आंगन सँ ल’ क खेत- खरिहान धरि एवं व्यक्‍तिगत अनुभूति सँ ल’ क’ सामूहिक लोकोत्सव धरि देखना जाइछ । अतः मैथिली लोकगीतक अनंत विस्तार कें अभिलेख बान्हल नहि जा सकैछ । भारतीय लोकगीत साहित्यक परिप्रेक्ष्य मे मैथिली लोकगीतक अनुशीलनसँ अनुरंजित अछि जँ कोनो भिन्‍नता देखना जाइछ तँ भाषा भेद, संस्कार भेद ओ भौगोलिक भेदक कारणें । आर यैह होइछ प्रत्येक जनपदक लोकगीतक विशिष्टता

। उदाहरणार्थ पर्वतांचल ओ हरितांचलक प्राकृतिक पृष्ठभूमि, भाषायी स्वरूप, गायन पद्धति, पूजा प्रक्रिया एवं सांस्कारिक विधान अवश्ये भिन्‍न होयत । राजस्थानक धरती मे जे उष्मा, पंजाब-हरियाणाक धरती मे जे उछाह ओ मस्ती एवं मिथिलांचल धरती मे जे सौकमार्य देखना जाइछ, ओ अन्यत्र दुर्लभ मानल जाइछ ।

मुदा मैथिली लोकगीत साहित्य सोहर ओ मंगलगीत मे जे करुणा, देवता-देवी विषयक गीतमे जे श्रद्धा ओ भक्‍ति, चैतीचांचर ओ मलार गीत मे जे ऋतुजन्य सौन्दर्य ओ सुषमा, गंगा-कमला ओ कोसीगीत मे जे प्रवाह, जँतसार, लगनी ओ बटगमनी गीत मे गार्हस्थ जीवनक उपराग ओ विराग, नेनागीत मे जे निश्छलता, मंत्रगीत मे जे रहस्यात्मक प्रतीक एवं समदाओन गीत मे जे करूणा अभिव्यंजित भेल अछि, ओ अनुपम अछि । मैथिली लोकगीत सभक भाषागत सौकुमार्य, नादगत सौन्दर्य ओ भावगत गरिमा विशिष्ट अछि । मिथिलांचलक सम्पूर्ण जीवन आचार ओ संस्कार मण्डित एवं प्रत्येक संस्कार गीत-नाद सँ अनुप्राणित अछि ।

मिथिला : एक परिचय,

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मिथिला : एक परिचय

मिथिला प्राचीन भारत मे एकटा साम्राज्य छल । ई पूर्वी गंगा मैदान मे अवस्थित अछि, जे आब आधा सँ अधिक बिहार और ओकरा सँ जुड़ल नेपालक भाग अछि । रामायण महाकाव्यक अनुसार मिथिला विदेह साम्राज्यक राजधानी छल । एहि शहरक पहचान नेपालक धनुषा जिला मे आजुक जनकपुर सँ कएल गेल अछि । विदेहक देश कखनो-कखनो मिथिला कहल जाईत अछि, जहन कि ई राजधानी छल । ई ठीक ओहिना अछि जेना कि कोशल साम्राज्यक राजधानी अयोध्या छल, जे कोशलक तुलना मे बेसी प्रसिद्ध भेल ।



डी. डी. कोशाम्बीक अनुसार शतपथ ब्राह्मण कहैत अछि कि माधब विदेघ पर पुजारी गोतम राहुगण शासन केलनि, जे पहिल राजा छलाह, जे सदानीरा (संभवत: गंडक ) नदी कें पार कऽ साम्राज्यक स्थापना कयलनि । एतयक लोक शतपथ ब्राहमणक संकलनक समय मे विदेहक नाम सँ जानल जाईत छलाह । गोतम राहुगण एकटा वैदिक ऋषि छलाह जे ऋग्वेदक पहिल मंडलक कतेको श्लोकक रचना कयलनि । ई श्लोक ओ अछि, जाहि मे स्व- राज्यक प्रंशसा कयल गेल अछि, जे निर्विवाद रूप सँ विदेघ राज्य छल जे ध्वनि परिवर्तनक कारण बाद मे विदेह भऽ गेल । अत: माधव विदेघ निश्‍चित रूप सँ बहुत पहिने भऽ चुकल छलाह । ऋग्वेदक दशम मंडल मे काशिराज प्रातर्दन द्वारा रचित श्‍लोकक उल्लेख अछि । अत: मिथिला आ काशी ओहि भूभाग मे अवस्थित छल, जाहि मे ऋग्वेद कालक व्यक्ति रहैत छलाह । गोतम राहुगणक परवर्ती ऋषि लोकनि गौतम कहल गेलाह । एहने एकटा सन्यासी रामायण काल मे अहिल्या स्थानक नजदीक रहैत छलाह ।



मिथिलाक गाथा कतओक शताब्दी धरि पसरल अछि । ई कहल गेल अछि जे गौतम बुद्ध आ वर्धमान महावीर दुनू गोटे मिथिला मे रहल छलाह । ई प्रथम सहस्त्राब्दिक दौरान भारतीय इतिहासक केंद्र छल आ विभिन्न साहित्यिक आ धर्मग्रंथ संबंधी काज मे अपन योगदान देलक ।



मैथिली मिथिला मे बाजय जायवला भाषा थिक । भाषाविद मैथिली कें पूर्वी भारतीय भाषा मानलनि अछि आ एहि तरहें ई हिन्दी सँ भिन्न अछि । मैथिली कें पहिने हिन्दी आ बंगला दुनूक उप-भाषा मानल जाइत छल । वस्तुत: मैथिली आब भारतीय भाषा बनि चुकल अछि ।



मिथिलाक सभ सँ महत्वपूर्ण संदर्भ हिन्दू ग्रंथ रामायण मे अछि, जतए एहि भूमिक राजकुमारी सीता कें रामक पत्नी कहल गेल अछि । राजा जनक सीताक पिता छलाह, जे मिथिला पर जनकपुर सँ शासन केलनि । प्राचीन समय मे मिथिलाक अन्य प्रसिद्ध राजा भानुमठ, सतघुमन्य, सुचि, उर्जनामा, सतध्वज, कृत, अनजान, अरिस्नामी, श्रुतयू, सुपाश्यु, सुटयशु, श्रृनजय, शौरमाबि, एनेना, भीमरथ, सत्यरथ, उपांगु, उपगुप्त, स्वागत, स्नानंद, शुसुरथ, जय-विजय, क्रितु, सनी, विथ हस्या, द्ववाति, बहुलाश्‍व आदि भेलाह ।



’मिथिला, एहि क्षेत्र मे सृजित हिन्दू कलाक एक प्रकारक नाम सेहो थिक । ई विशेष कऽ वियाह सँ पूर्व महिला द्वारा घर के सजेबाक लेल घरक देबार आ सतह पर धार्मिक, ज्यामितीय आ चिहनांकित आकृति सँ शुरु भेल आ एहि क्षेत्र सँ बाहर एकरा नहि जानल जाइत छल । जहन एहि कलाक लेल कागजक शुरुआत भेल तँ महिला लोकनि अपन कलाकृति कें बेचय लगलीह आ कलाक विषय वस्तु कें लोकप्रिय आ स्थानीय देवताक संगहि प्रतिदिनक घटनाक चित्रांकन धरि विस्तृत केलीह । गंगा देवी संभवत: सब सँ प्रसिद्ध मिथिलाक कलाकार छथि । ओ परंपरागत धार्मिक मिथिला चित्रांकन, लोकप्रिय देवताक चित्रांकन, रामायण आ अपन जिनगीक घटना सँ दृश्यक चित्रांकन कयलनि ।



मिथिला




वशिष्ठ द्वारा शापित मृत्यु के प्राप्त करय वला राजा निमि केँ शरीर के गंगासागर पर मथल गेल, ओहि सँ निकलल बालक के नाम मिथि पड़ल, आ हुनक राज्यक नाम मिथिला पड़ल । शतपथ ब्राह्मण केँ अनुसार राजा विदेथ माधव द्वारा गंडक किनार एक यज्ञ स्थल बनाओल गेल, जकर नाम मिथिला पड़ल आ पाछू राज्यक नाम मिथिला भेल ।

मिथिलाभी भवः मैथिल ः “मिथिला मे जन्म लेनिहार मैथिल भेलाह, वा मैथिली भाषा बाजनिहार मैथिल छथि ।
गंगा बहथि जनिक दक्षिण दिशि, पूर्व कौशिकी धारा,
पश्‍चिम बहथि गंडकी उत्तर हिमवत्‌ बल विस्तारा ।

मिथिलामे २५ जिला, ५० अनुमंडल १९९९ तक लगभग छल जाहि मे वृद्धि भेल हैत, ७२,३०० किमी० क्षेत्रफल, ४४ नदी, ६ हजार पोखड़ि, अनगिनत इनार । पाल० एस० व्रास लैगुएस, रिलीजन एण्ड पोलिटिकस इन नार्थ इंडिया, पृ० ६४ मे १९६१ मे जनसंख्या १६५६५,४७७ लिखने छथि, ग्रियर्सन १८९१ मे मैथिली भाषा-भाषी केँ जनसंख्या ९,३८९,३७६ निर्धारित कयलनि, तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर पत्रांक ३ आर १-१०-१९६६, दिनांक २२-१२-७७ केँ तत्कालीन केन्द्रीय सरकार के विधिमंत्री शान्तिभूषण केँ लिखलनि जे अपना देश मे २ करोड़ सँ अधिक आ नेपाल मे ३० लाख सँ अधिक मैथिली भाषा-भाषी छथि । तैं जनसंख्या निर्धारित करब कठिन, कारण जतय सँ प्रवजन भारी मात्रा मे भेल ।

मैथिली केँ क्षति जते अपन लोक कएलक ओते दोसर नहिं । १९१४ मे भागलपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन मे गिरीन्द्र मोहन मिश्र प्रस्ताव देलनि जे बिहार प्रान्तक मातृभाषा हिन्दी थीक, तैं प्राथमिक शिक्षाक माध्यम हिन्दी हो, जिनका मैथिली पुस्तक पर साहित्य अकादमी पुरस्कार सेहो भेटलनि । राष्ट्रीय आन्दोलनक समय मे अखिल भारतीय स्तर पर भावात्मक एकता बढ़यबाक दृष्टि सँ मैथिली भाषी सब मिथिलाक्षर वा तिरहुताक्षर कें स्थान मे देवनागरी स्वीकार कयलनि । बिहार मे विनोदानंद झा, भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर, विन्देश्‍वरी प्रसाद मंडल, सतीश प्रसाद सिंह, डा० जगन्नाथ मिश्र मैथिली भाषा-भाषी मुख्यमंत्री भेलाह, किन्तु ओ सभ संविधानक आठम सूची मे मैथिली केँ स्थान नहिं दिया सकलाह । फलतः बिहार मे एतेक संख्या रहबाक बावजूद मातृभाषा नहि मानल गेल । तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव सेहो लिखलनि कि १९९०-९१ केँ जनगणना के अनुसार बिहार मे भोजपुरी, आदिवासी, मगही भाषा- साहित्य कें छोड़ि कऽ आयोगक परीक्षा मे मैथिली ऐच्छिक भाषाक रूप मे राखब उचित नहिं आ बिहार लोक सेवा आयोग सँ मैथिली जे ऐच्छिक विषय के रूप मे छल, से हटा देल गेल । (बिहार सरकार के कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभागक ज्ञापांक १३४२, दिनांक २९ फरवरी, १९९२) ।

जखन एस० के० चटर्जी ओरिजिन एण्ड डेवलपमेन्ट ऑफ बंगाली लैंग्वेज नामक पोथी मे लिखलनि “मैथिली भारत की स्वतंत्र एवं समुन्‍नत भाषा है ।" ज्योतिरीश्‍वरक १२८०-१३४० ई० मे वर्णरत्‍नाकर एवं मैथिली धूर्त समागम उत्तर भारतक सब आधुनिक आर्यभाषाक सर्वप्रथम ग्रन्थ एवं नाट्‍य कृति मानल जाइछ । महाकवि विद्यापतिक (१३५०-१४४०) रचना कालजयी साहित्यिक रचना मानल जाइछ । महर्षि अरविन्द मैथिली गीतक अनुवाद कयलनि, युनेस्को हिनक गीतक अनुवाद प्रकाशित कयलक । विश्‍वप्रसिद्ध कुमार स्वामी हिनक गीतक भावचित्र बनाय गीत एवं चित्रक प्रकाशन कयलनि, गौरांगस्वामीक रचना हिनका सँ प्रभावित छल, नहिं जानि कतेक भाषा मे हिनक गीतक अनुवाद भेल । दिल्ली मे मैथिली पुस्तक एवं पांडुलिपि देखि तत्कालीन प्रधान मंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू विजिटर्स बुक मे लिखलनि “MaithilI has been for a long time and is today a living language among the people of the area. The language deserves encouragement ". अंतर्राष्ट्रीय साहित्यकार एवं बुद्धिजीविक संस्था P.E.N. (Play Wrights, Essayists, Editors, Nanvelists) में मैथिली साहित्यकार स्थान पवैत छथि । यू०जी०सी० द्वारा कनीय एवं वरिष्ठ अनुसंधान छात्रवृत्ति मैथिली मे देल जाइछ, व्याख्याता पदक अर्हताक लेल प्रतियोगिता परीक्षा मे एकर स्थान अछि, नेपालक द्वितीय भाषा मैथिली अछि, तथापि संविधानक अष्टम सूची मे ई स्थान एकरा बहुत समय बाद भेटलैक, ई दुःखक गप ।

हम सब मैथिल जतय कतहुँ होइ, आ समस्त मैथिलक संस्था केन्द्रीयभूत भय प्रयास करत, तखनहिं सफलता भेटि सकैछ । ताहि मे पंजी-व्यवस्था एवं सभा सहायक सिद्ध हैत, जतय विचार विमर्श कय समस्याक निराकरण कयल जा सकैछ ।

मिथिलाक विभूति न्यायसूत्र प्रणेता गौतम, वैशेषिक दर्शनक जनक कणाद्‌, मीमांसा प्रणेता जैमिनी, सांख्य दर्शनक संस्थापक कपिल, विदेह जनक, याज्ञवल्क्य, गंगेश उपाध्याय, वाचस्पति, विद्यापति, कालिदास, लक्ष्मीनाथ गोसाइं, शिवसिंह, नान्यदेव, उदयनाचार्य, गोविन्ददास, बहुरागोढ़िन, अयाची, चंदा झा, लालदास, बच्चा झा आदि प्रभृतिक आत्मा कचोटि रहल छनि जे ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल-जनकपुर धाम, वलिराजगढ़, परसाधाम, सखड़ा (नेपाल), सौराठ, कपिलेश्‍वर-स्थान, उच्चैठ, विस्फी, विदेश्‍वर-स्थान, उगना-स्थान, डोकहर, बाल्मीकि आश्रम, कलनेश्‍वर-स्थान, गिरिजा-स्थान, दक्षिणेश्‍वर हनुमान, पुनौरा, हलेश्‍वर-स्थान, गोरहौल शरीफ, महिष्मती (महिषी), सिंहेश्‍वर-स्थान, अहिल्या-स्थान, बोधायन, विद्यापति नगर, मंगलागढ़, नौलागढ़, सिमरिया घाट एवं अन्य अनेक प्राचीन गौरवमय स्थानक दर्शन कय मैथिल गौरवान्वित भय एकरा आगू बढ़यबाक प्रयास करथि, जाहि सँ मिथिला, मैथिल, मैथिलीक विकास होय ।

भौगोलिक सीमा आ जलवायु

मिथिला क्षेत्र गंगाक उत्तरी मैदान मे अछि । एहि क्षेत्रक मुख्य स्थान दरभंगा, मधुबनी, झंझारपुर, समस्तीपुर, मधेपुरा, बेगूसराय, सहरसा, सीतामढ़ी, जनकपुर आदि अछि । जनकपुर आब नेपालक क्षेत्र मे अछि । एहि क्षेत्रक जलवायु मुख्यत: शुष्क आ ठंढ़ा अछि । गर्मी मे तापमान ३५ सँ ४५ डिग्री सेल्सियस आ जाड़ मे ५ सँ १५ डिग्री सेल्सियस रहैत अछि । एतय घुमबाक लेल फ़रवरी - मार्च आ अक्तूबर- नवंबर सब सँ नीक अछि ।

एहिठामक माँटि खेतीक लेल उपयुक्त अछि, जे क्षेत्रक मुख्य आर्थिक आधार अछि । कृषिक लेल पर्याप्त वर्षा होइत अछि ।

एहि क्षेत्र मे प्रतिवर्ष बाढ़ि अबैत अछि, जाहि सँ एहिठामक लोकक जिनगी मे कठिन समस्या अबैत अछि आ करोड़ों रुपयाक नोकसान होइत अछि । एहिठामक लोकक लेल किछु व्यक्ति द्वारा विभिन्न नदी पर बाँधक जरुरतिक अनुभव कएल गेल अछि । किछु अन्य कें एहि बातक भय सेहो छनि जे भूकंप- प्रवण क्षेत्र मे वृहत बाँध वार्षिक बाढ़ि सँ बेसी खतरनाक होयत ।

अर्थव्यवस्था

खेती एहि क्षेत्रक मुख्य आर्थिक कार्यकलाप थिक । मुख्य फ़सल धान, गहूम, दालि, मकई, मुँग, उडद, राहड़ि आदि आ जूट (एकर उत्पादन मे कमी आयल अछि) अछि । आई- काल्हि देशक आन भागक तुलना मे खेती नीक नहि रहबाक कारणें, ई सब सँ अधिक पिछड़ल क्षेत्र भऽ गेल अछि । बाढि हर वर्ष फ़सलक पैघ भाग कें नाश कऽ दैत अछि । उद्योगक अनुपस्थिति, कमजोर शैक्षिक अवसंरचना आ राजनीतिक अपराधीकरणक कारणें अधिकांश युवक कें शिक्षा आ आमदनीक लेल स्थान परिवर्तन करय पड़ैत छनि । एहि परिवर्तनक उज्जवल पक्ष इ आछे जे ओ लोकनि भारतक प्रमुख क्षेत्र और स्थान मे महत्वपूर्ण भऽ गेलाह अछि ।

मिथिला पेंटिग आब बाजार मे हिस्सेदारी प्राप्त कयलक अछि । आब सरकार सेहो राष्ट्रीय धरोहरक रूप मे एकरा सहायता दऽ रहल अछि ।














और इ अछि अपनेक कला एवं कृति भाग | अई में अहाँ के विभिन्न प्रकार के कला एवं कृति के सम्बन्ध में जानकारी भेंट'त | जेना कि क'त केहन और के जलावनरण करैल खिन या |मधुबनी चित्रकला या मिथिला चित्रकला के उत्पति पुरानकाल में भैल छेलै | मिथिला चित्रकला के परम्परा रामायण के जमाना स छै, जखैन महाराजा "जनक जी" के पुत्री "सीता जी" के ब्याह भरह'ल छेलै भगवान "राम जी" स सब चित्रकार के महाराजा "जनक" सबके धन देने छैलखिन चित्रकारी करले'ल |


मधुबनी चित्रकारी, महिलाऐं जे सब मधुबनी शहर के आस-पास के गाम् में रहे छथिन्, हुनका सबके द्धारा बनाय'ल जाऐ छै, साथ मे औरों सब मिथिला के हिस्सा मे बनाव'ल जाए छै | मिथिला चित्रकला पारम्परिक तौर पर ताजा पलस्तर करल्, झोपड़ी के किचड़ के दिवार पर, कपड़ा पर, हाथ स बनल कागज पर और किरमिच पर बनाव'ल जाई'या |




मधुबनी चित्रकारी मे दुईटा परिमाण के इस्तेमाल होइ छै, और चित्रकारी ले'ल जे रंग के उपयोग होइ छै, पेड़-पौधा स बनाय'ल जाए छै | गेरू और काजल के इस्तेमाल कत्थी और काला रंग ले'ल होए छै |




मधुबनी चित्रकला प्रकृति और हिन्दु धर्म के मुल-भाव के चित्रित करे छै और चित्र के विषय-वस्तु हिन्दु धर्म के चारू तरफ घुमेत् रहे छै - उदाहरण के तौर पर - कृष्णा, राम, शिव जी, दुर्गा माँ, लक्ष्मी जी, और स्वरस्वती माँ, प्राकृतिक वस्तु जेना सुर्य,चन्द्रमा, पुज्यनीय पौधा "तुलसी" विशाल तौर पर बनाव'ल जाए छै | आमतौर पर कोनो स्थान खाली नय रहे छै, खाली स्थान के फुल, जानवर, पंछी के चित्र से भैर दे'ल जाए छै |




पारंपरिक तौर पर, ई चित्रकला एहन हुनर छै जे पिढ़ी दर पिढ़ी परिवार के सदस्य के देल जाए छै, खास कर महिला सदस्य के, महिला सदस्य के व्दारा |आमतौर पर मधुबनी चित्र दिवार पर बनाव'ल जाए छै त्योहार मे, धार्मिक कार्य मे और बहुत महत्वपुर्ण घटना मे, जेना बच्चा के जन्म, उपान्यनम और शादी में |




अखैन के प्रसिध्द मधुबनी चित्रकला के किछ चित्रकार के नाम मे शामिल छथिन् - सरिता देवी(बौआ देवि के पुत्री), पुष्पा कुमारी, करपुरी देवी, महासुन्दरी देवी, गौदावरी दत्ता, जमुना देवी और ललिता देवी |




सीता देवी जीत्वारपुर गाँव के, बौआ देवी और गंगा देवी हिनका सबके महारथ हासिल छेलै मिथिला पेंटिंग के गाँव के दिवार स कागज और किरमिच पर उतारे के | कला एवं कृति पर लेख



ई भाग में अहां के विभिन्न और अलग-अलग स्थान के सांस्कृतिक गतिविधि के सम्बन्ध में जानकारी मिलत और केना भाग ली | इ सामुदायिक र्पोटल अग्रह करे छै सब स के अपन सांस्कृतिक गतिविधि के जानकारी बांटू |

अहां ऐतिहासिक स्थान के जानकारी हमर इतिहास खण्ड स पा सके छि |




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