चौरचन के कथा

चौरचन के कथा

चौरचन के सम्बन्ध में स्कन्दपुराण मे चन्द्रोपाख्यान शीर्षक सँ वर्णित कथा -
नन्दिकेश्‍वर सन्तकुमार सँ कहैत छथिन्ह- "हे सन्त कुमार ! यदि अहाँ अपन शुभक कामना करैत छी तऽ एकाग्रचित सँ चन्द्रोपाख्यान सुनू । पुरुष होथि वा नारी ओ भाद्र शुक्ल चतुर्थीक चन्द्र पूजा करथि । ताहि सँ हुनका मिथ्या कलंक तथा सब प्रकार केँ विघ्नक नाश हेतैन्ह।" सन्तकुमार पुछलिन्ह- "हे ऋषिवर ! ई व्रत कोना पृथ्वी पर आएल से कहु।" त नन्दकेश्‍वर बजलाह-"ई व्रत सर्व प्रथम जगत केर नाथ श्री कृष्ण पृथ्वी पर कैलथिन्ह। सन्तकुमार केँ आश्‍चर्य भेलैन्ह। षड्गुण ऐश्‍वर्य सं सम्पन्‍न सोलहो कला सँ पूर, सृष्टिक कर्त्ता-धर्त्ता, ओ केना लोकनिन्दाक पात्र भेलाह।
नन्दीकेश्‍वर कहैत छथिन्ह – "हे सन्तकुमार! बलराम आओर कृष्ण, वसुदेव केर पुत्र भऽ पृथ्वी पर वास केलथिन्ह। ओ जरासन्धक भय सँ द्वारिका गेलथिन्ह। ओतय विश्‍वकर्मा द्वारा अपन पत्नीसबहक लेल १६ हजार तथा यादव सब केँ लेल ५६ करोड़ घर केँ निर्माण कय वास केलथिन्ह। ओहि द्वारिका मे उग्रनाम केर यादव केँ दूटा बेटा छलैन्ह, सतजित आओर प्रसेन। सतजित समुद्र तट पर जा अनन्य भक्‍तिसँ सूर्यक घोर तपस्या कय हुनका प्रसन्‍न केलाह। प्रसन्‍न सूर्य प्रगट भऽ वरदान माँगू कहलथिन्ह। सतजित हुनका सँ स्यमन्तक मणिक याचना कयलन्हि। सूर्य मणि दैत कहलथिन्ह, "हे सतजित! एकरा पवित्रता पूर्वक धारण करब, अन्यथा अनिष्ट होएत।" सतजित ओ मणि लऽ नगर मे प्रवेश करैत विचारय लगलाह ई मणि देखि कृष्ण मांगि नहि लेथि। ओ ई मणि अपन भाइ प्रसेन केँ देलथिन्ह। एकदिन प्रसेन श्री कृष्ण केर संग शिकार खेलय लेल जंगल गेलाह। जंगल मे प्रसेन पछुआ गेलाह। सिंह हुनका मारि मणि लऽ क चलल तऽ ओकरा जाम्बवान्‌ भालू मारि देलथिन्ह । जाम्बवान्‌ ओ मणि लऽ अपनावील मे प्रवेश कऽ खेलऽ लेल अपना पुत्र केऽ देलथिन्ह ।
एम्हर कृष्ण अपना संगी साथीक संग द्वारिका ऐलथिन्ह। ओहि समूहमे लोक सब प्रसेन केँ नहि देखि बाजय लगलाह जे ई पापी कृष्ण मणिक लोभ सँ प्रसेन केँ मारि देलाह। एहि मिथ्या कलंक सँ कृष्ण व्यथित भऽ चुप्पहि, प्रसेनक खोज लेल जंगल गेलाह। ओतऽ देखलाह प्रसेन मरल छथि। अाराे आगू गेलाह तऽ देखलाह एकटा सिंह मरल अछि। किछ देर अाराे आगू गेलाह त उत्तर दिशामे एकटा वील देखलाह। ओहि वील मे प्रवेश केलाह । ओ वील अन्धकारमय छलैक। ओकर दूरी १०० योजन यानि ४०० मील छल। कृष्ण अपना तेज सँ अन्धकार के नाश कय जखन अंतिम स्थान पर पहुँचलाह तऽ देखैत छथि कि खूब मजबूत, खूब निक सुन्दर भवन अछि। ओहि मे खूब सुन्दर पालना पर एकटा बच्चा के दाय झुला रहल छैक। बच्चा क आँखिक सामने ओ मणि लटकल छैक आ दाय गबैत छैक –
"सिंहः प्रसेनं  अवधीत्, सिंहो जाम्बवता  हतः।
सुकुमारक मा रोदी तव हि एषः स्यमन्तकः॥"
अर्थात्‌ "सिंह प्रसेन केँ मारलाह, सिंह जाम्बवान्‌ सँ मारल गेल, औ बौआ! जूनि कानू! अहींक ई स्यमन्तक मणि अछि।" तखनैहि एक अपूर्व सुन्दरी विधाताक अनुपम सृष्टि युवती ओतय अयलीह। ओ कृष्ण केँ देखि काम-ज्वर सँ व्याकुल भऽ गेलीह। ओ बजलीह, "हे कमलनेत्र! ई मणि अहाँ लियऽ आओर तुरत भागि जाउ। जा धरि हमर पिता जाम्बवान्‌ सुतल छथि।" श्री कृष्ण प्रसन्‍न भऽ शंख बजा देलथिन्ह। जाम्बवान्‌ उइठ गेलाह अा श्री कृष्ण सँ युद्ध करय लगलाह। हुनका दुनु केँ भयंकर बाहुयुद्ध २१ दिन धरि चलैत रहलन्हि। एम्हर द्वारिकावासी सात दिन धरि कृष्णक प्रतीक्षा कय हुनकर प्रेत क्रिया सेहो कय देलथिन्ह। २२अौ दिन जाम्बवान्‌ ई निश्‍चित क लेलैथ जे कि ई मानव नहि भऽ सकैत छथि। ई अवश्य परमेश्‍वर छथि । ओ युद्ध छोड़ि हुनकर प्रार्थना केलथिन्ह अौर अपन कन्या जाम्बवती केँ श्री कृष्ण केर अर्पण कय देलथिन्ह। भगवान् श्री कृष्ण मणि लैत जाम्बवतीक संग सभा भवन मे आइब, जनताक समक्ष सतजीत केँ ओ स्यमन्तक मणि सादर समर्पित कय देथिन्ह। सतजीत प्रसन्‍न भऽ अपन पुत्री सत्यभामा कृष्ण केर सेवा लेल अर्पण कय देलथिन्ह ।
किछुए दिन मे दुरात्मा शतधन्बा नामक एकटा यादव, सतजित केँ मारि ओ मणि लय लेलक। सत्यभामा सँ ई समाचार सूनि श्री कृष्ण, बलराम केँ कहलथिन्ह, "हे भ्राताश्री! ई मणि हमरे योग्य अछि। एकरा शतधन्बा लऽ लेलक। ओकरा पकड़ू।" शतधन्बा ई सूनि ओ मणि, अक्रूर केँ दय देलथिन्ह आओर रथ पर चढ़ि दक्षिण दिशा मे भागि गेलाह। कृष्ण-बलराम १०० योजन धरि हुनकर पांछाँ केलाह। वाद मे शतधन्बासंग मे मणि नहि देखि बलराम कृष्ण केँ फटकारऽ लगलाह, “हे कपटी कृष्ण ! अहाँ लोभी छी ।” कृष्ण केँ लाखों शपथ खेलो पर बलराम शान्त नहि भेलाह तथा विदर्भ देश चलि गेलाह। कृष्ण घूरिऽ‌‍ कय जहन द्वारिका एलाह, तँ लोक सभ फेर कलंक देबऽ लगलैन्ह। जे ई कृष्ण मणिक लोभ सँ बलराम एहन शुद्ध भाय केँ फेर छलपूर्वक द्वारिका सँ बाहर कय देलाह। अहि मिथ्या कलंक सँ कृष्ण संतप्त रहय लगलाह। अहि बीच नारद (ओहि समयक पत्रकार) त्रिभुवनलोक मे घुमैत कृष्ण सँ मिलक लेल आयल छलाह। चिन्तातुर उदास कृष्ण केँ देखि पुछथिन्ह “हे देवेश! किएक उदास छी?” कृष्ण कहलथिन्ह, ” हे नारद! हम बेरि-बेरि मिथ्यापवाद सँ पीड़ित भऽ रहल छी।” नारद कहलथिन्ह, “हे देवेश! अहाँ निश्‍चिते भादो मासक शुक्ल चतुर्थीक चन्द्र देखने होएब तेँ अपने केँ बेरि-बेरि मिथ्या कलंक लगैछ। श्री कृष्ण नारद सँ पूछलथिन्ह, “चन्द्र दर्शन सँ किऐक ई दोष लगैत छैक।” नारद जी कहलथिन्ह, “जे अति प्राचीन काल मे चन्द्रमा, गणेश जी सँ अभिशप्त भेलाह, जे अहाँक जे कियाे देखताह हुनको मिथ्या कलंक लगतैन्ह।” कृष्ण पूछलथिन्ह, “हे मुनिवर! गणेश जी किऐक चन्द्रमा केँशाप देलथिन्ह?” नारद जी कहलथिन्ह, “हे यदुनन्दन! एक बेरि ब्रह्मा, विष्णु आओर महेश पत्नीक रुप मे अष्ट सिद्धि आओर नवनिधि केँ गणेश केँ अर्पण कय प्रार्थना केलखिन। गणेश प्रसन्न भऽ हुनका तीनू केँ सृजन, पालन आओर संहार कार्य निर्विघ्न रूप सँ करु ई आशीर्वाद देलथिन्ह। ताहिकाल मे सत्यलोक सँ चन्द्रमा धीरे-धीरे नीचाँ आबि अपन सौन्दर्य मद सँ चूर भऽ गजवदन केँ उपहास केलखिन। तहन गणेश जी क्रुद्ध भऽ हुनका शाप देलथिन्ह,“हे चन्द्र! अहाँ अपन सुन्दरता सँ नितरा रहल छी। आइ सँ जे अहाँ केँ देखताह, हुनका मिथ्या कलंक लगतैन्ह ।” चन्द्रमा कठोर शाप सँ मलीन भऽ जलमे प्रवेश कय गेलाह। देवता लोकनि मे हाहाकार मचि गेल । ओ सब ब्रह्माक पास गेलाह। ब्रह्मा कहलथिन्ह अहाँ सब गणेश जी सँ जा कय विनती करू, वैह एकर उपाय बतेता। सब देवता पूछलखिन जे गणेशक दर्शन कोना होयत। ब्रह्मा बजलाह, “चतुर्थी तिथि केँ गणेश जी केर पूजा करु।” सब देवताचन्द्रमा सँ कहलथिन्ह। चन्द्रमा चतुर्थीक गणेश पुजा केलाह। गणेश बालरुप मे प्रकट भऽ दर्शन देलथिन्ह आओर कहलथिन्ह,"चन्द्रमा हम प्रसन्‍न छी, वरदान माँगू ।” चन्द्रमा प्रणाम करैत कहलथिन्ह, “हे सिद्धि विनायक! हम शाप मुक्‍त होइ, पाप मुक्‍त होइ, सभ हमर दर्शन करय।” गणेश जी कहलथिन जे हमर शाप व्यर्थ नहि जायत किन्तु शुक्ल पक्ष मे प्रथम उदित अहाँक दर्शन आओर नमन शुभकर रहत तथा भादोक शुक्ल पक्ष मे चतुर्थीक जे अहाँक दर्शन करताह हुनका लोकलांछणा लगतैन्ह । किन्तु यदि ओ “सिंहः प्रसेनं अवधीत्..” इत्यादि मन्त्र केँ पढ़ैत दर्शन करताह तथा हमर पूजा करताह हुनका ओ दोष नहि लगतैन्ह।
एवम् प्रकारेन्, श्री कृष्ण सेहो नारद सँ प्रेरित भऽ एहिव्रत केर अनुष्ठान कयलाह । तहन ओ लोक कलंक सँ मुक्‍त भेलाह ।
एहि चौठ तिथि आओर चौठ चन्द्र केँ जनमानस पर एहन प्रभाव पड़ल जे आइयो लोक चौठ तिथि केँ किछु नहि करऽ चाहैत छथि । कवि समाजो अपना काव्य मे चौठक चन्द्रमाक नीक रुप मे वर्णन नहि करैत छथि । कवि शिरोमणि तुलसी दासक सुन्दर काण्ड मे मन्दोदरी-रावण संवाद मे मन्दोदरीक मुख सँ अपन उदगार व्यक्‍त करैत छथि,“तजऊ चौथि के चन्द कि नाई” अर्थात "हे रावण। अहाँ सीता केँ चौठक चन्द्र जकाँ त्याग कऽ दियहु। नहि तऽ लोक निंदा करबैत अहाँक नाश कय देतीह।"
एतय ध्यान देबाक बात ई अछि जे जाहि चन्द्र केँ हम सब आकाश मे घटैत बढ़ैत देखैत छी ओ पुरुष रुप मे एक उत्तम दर्शन भाव लेने अछि।

ईन्दु कर्ण
नगराईन-२, धनुषा (नेपाल)